भारतीय समयानुसार तड़के 3 बजकर 27 मिनट पर फ्लोरिडा के समंदर में लैंडिंग कर स्पेसक्राफ्ट ड्रेगन के कैप्सूल ने जब 4 अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षित लॉन्चिंग कराई, तो इतिहास रचा जा चुका था। कारण यह था कि इसमें दो यात्री ऐसे भी थे जो लगभग 9 माह पहले मिशन पर गये थे लेकिन कुछ तकनीकी कारणों से उनका 8 दिनों का मुकाम बढ़ता चला गया था। पृथ्वी से औसतन लगभग 400 किलोमीटर ऊपर नितांत निर्जन व निर्वात, शून्य गुरुत्वाकर्षण, करोड़ों किलोमीटर तक अंतरिक्ष में पृथ्वी व उसके चंद्रमा के बगैर माइनस 121 डिग्री सेल्सियस से लेकर माइनस 157 डिग्री सेल्स. तापमान में सुनीता विलियम्स व बुच विल्मोर ये यात्री थे, जिन्होंने नयी-नयी तकनीकी दिक्कतों को अपने साहस, धैर्य और ज्ञान से परास्त करते हुए पृथ्वी पर वापसी कर खगोल विज्ञान के इतिहास में अपने नाम के अलग अध्याय लिख दिये हैं। सुनीता के प्रति भारतीयों का लगाव स्वाभाविक है क्योंकि उनकी जड़ें इसी देश की हैं, परन्तु इस मायने में उनका नाम ऊपर लिखा जायेगा कि वे पहली ऐसी यात्री बन गयी हैं जिन्होंने अंतरिक्ष की तीन बार यात्राएं कीं। इसके साथ ही वे उस क्लब में शामिल हो गयी हैं जिन्होंने 600 से ज्यादा दिन घने काले अंतरिक्ष में बिताये हैं जो अनंत है, अपार है, अबूझ व अल्पज्ञात भी।
ऐसा ब्रह्मांड जिसमें एक बार खो जाने पर मनुष्य तो क्या एक तिनके का भी कभी पता न चले, वहां सुनीता-विल्मोर की जोड़ी ने न धैर्य खोया न हिम्मत और न ही अपना मानसिक संतुलन। वे वहां विभिन्न तरह के प्रयोग करते रहे लेकिन वक्त पर बस या ट्रेन न मिलने से भी विचलित हो जाने वाले सामान्यजन को इस बात का कभी अंदाजा नहीं हो सकता कि बार-बार रद्द होती वापसी से कोई भी व्यक्ति कितना विचलित हो सकता है। वह भी ऐसी जगह पर बैठा व्यक्ति जो जानता है कि इस सतत फैलते और एक-दूसरे के गुरुत्वाकर्षण से बंधकर परिक्रमा करते अंतरिक्ष में कुछ भी निश्चित नहीं है। कब कौन सा यात्री थोड़ी गलती होने पर छिटककर प्रति सेकंड 16 हजार किलोमीटर की रफ्तार से फेंक दिया जायेगा या कब कौन सा उल्का पिंड आकर टकरा जाये अथवा किस क्षण कोई ग्रह उस यात्री व स्पेस स्टेशन तो क्या पूरी पृथ्वी को ही अपने में विलीन कर दे।
हमारे ब्रह्मांड की उम्र 13.8 अरब वर्ष आंकी गयी है। लगभग 5 अरब साल पहले तैरती धूल और हीलियम व हाइड्रोजन गैसों से सूर्य बना और पृथ्वी तकरीबन 4.6 अरब साल पहले अस्तित्व में आई। हमारे सौरमंडल में ज्यादातर ग्रहों व क्षुद्र ग्रहों से बने असंख्य स्पेस ऑब्जेक्टस बने हैं जो परस्पर टकरावों का प्रतिफल हैं। कोई भी वस्तु कब किससे आकर टकरा जाये, कहा नहीं जा सकता- ऐसे खतरे के बीच यह मनुष्य का साहस व ज्ञान ही है जो उन्हें विपरीत परिस्थितियों में टिके रहने का संकल्प प्रदान करता है। वैज्ञानिकों के साहस, बलिदान और जिज्ञासा ने ही विज्ञान को आज यहां तक पहुंचाया है।
भारत में पिछले कुछ समय से वैज्ञानिक और तकनीकी कौतूहल नाम का तत्व खत्म हो रहा है; या कहें कि खत्म किया गया है। ऐसे में ज्यादातर भारतीय दुनिया में हो रहे वैज्ञानिक व तकनीकी विकास से अनभिज्ञ हैं। सामान्य युवाओं और छात्रों को पूछिये कि सुनीता विलियम्स का क्या माजरा है, तो वे जवाब नहीं दे पाएंगे। न उन्हें शून्य गुरुत्वाकर्षण का पता है न अंतरिक्ष का रंग ज्ञात है। बिग बैंग थ्योरी और ब्लैक होल से अपरिचित वे यह भी नहीं जानते कि अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन क्या है और वह कितनी ऊंचाई पर कार्यरत है। उसका उद्देश्य क्या है और अब तक उसने क्या किया है। यही ज्ञान वैज्ञानिक तरक्की की दौड़ शुरू करने वाली वह रेखा है जिसमें तमाम विकसित देश एक-दूसरे के साथ होड़ लगा रहे हैं जबकि भारत ठीक विपरीत दिशा में भाग रहा है- अज्ञानता की तरफ़।
भारतीय संविधान में जिस 'साइंटिफिक टेंपर' यानी 'वैज्ञानिक चेतना' की बात कही गयी थी और उसे विकसित करना सरकार का एक प्रमुख दायित्व तय किया गया था, वह आज पूर्णत: अनुल्लेखनीय व अवांछित नीति-तत्व बनकर रह गया है। सियासत यदि सत्ता बनाये रखने के लिये देश को मध्ययुग की ओर ले जाये तो वहां केवल राजनेताओं द्वारा छवि निर्माण और विश्वगुरु होने का भ्रम ही शेष रह जाता है।
बेहद मुश्किल मिशन में पड़े अंतरिक्ष यात्रियों को लाने के लिये अमेरिका के तमाम वैज्ञानिकों के साथ वहां के प्रमुख उद्योगपति एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहां के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बचाव का काम अपने देश के नासा व स्पेसएक्स पर छोड़ रखा था। इसके बरक्स हम देखें तो श्रेय लेने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर वक्त तत्पर रहते हैं। यहां तक तो फिर भी ठीक है कि एक राजनेता होने के नाते वे लोगों को इस तरह से प्रभावित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन जिस तरह से देश में अवैज्ञानिकता और अंधविश्वास को वे न केवल बढ़ावा देते हैं बल्कि वैसी वैचारिकता का नेतृत्व भी करते हैं। मौके का लाभ उठाकर मोदीजी ने तुरंत सुनीता को चिठ्ठी भी लिख दी जिसमें उन्होंने वापसी पर प्रसन्नता जताई है। ये वही मोदीजी हैं जिन्होंने कोरोना काल में सड़कों पर घिसटते करोड़ों गरीबों के परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं की और न ही खोज-खबर ली कि वे कितनी मुश्किलों से लौट रहे हैं। नाले की गैस से चाय बनाने, राडार से जहाजों को छिपाने, टर्बाइन से ऑक्सीजन व पानी को अलग करने की बातें करने वाला व्यक्ति जब ऐसी चिठ्ठी लिखे तो हंसी का पात्र ही बनता है। सुनीता की वापसी उस विज्ञान की जीत है जिससे दूर रहकर फिलहाल भारत मुस्लिम शासकों की कब्रें तथा मस्जिदों-दरगाहों के नीचे शिवलिंग ढूंढ़ने में मग्न है।